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राजा पोखरे में कितनी मछलियाँ

प्रभास कुमार चौधरी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 701
आईएसबीएन :00000

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सामन्ती अर्थव्यवस्था और उसके भीतर से उपजे खोखले आदर्श एवं तीखे यथार्थ की जीवन्त कथा...

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित मैथिली के अग्रणी कथाकार प्रभास कुमार चौधरी का यह विचारोत्तेजक उपन्यास ‘राजा पोखरे में कितनी मछलियाँ’ ढहती सामन्ती व्यवस्था और उसके भीतर से उपजे खोखले आदर्श एवं तीखे यथार्थ की जीवन्त मार्मिक कथा है। प्रेम, त्याग, समर्पण और कर्त्तव्य भावना के बीच एक ऐसे नाटक-चरित्र की लंबी संघर्ष-कथा है यह उपन्यास जो अपने आसपास के भ्रष्टाचार, अत्याचार और अपसंस्कारों की त्रासदियाँ भोगने के लिए विवश है। उसकी नियति उस व्यक्ति-जैसी ही है जो एक स्वस्थ्य, सुन्दर, सम्भाव वाला जीवन और समाज के प्रवहमान जीवंत आदर्श और यथार्थ को देखना चाहता है। कहना होगा कि एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रूप में प्रभास जी ने मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को कलात्मक अभिव्यक्ति देने वाले अपने इस मनोहारी उपन्यास को शिल्पगत रूढ़ियों और जटिलताओं से बचाने की कोशिश की है। नतीजतन उनका यह उपन्यास इतना सहज संप्रेषणीय बना है कि आशा है, पाठक इससे अभिभूत होंगे।

राजा पोखरे में कितनी मछलियाँ



दादी किस्सा कहने लगीं।
कठरी बाबाजी का किस्सा। निस्तब्ध रात्रि में सात चोर शगुन बनाकर चोरी करने निकले थे-पैर दाबे, निःशब्द। न जाने कैसे पैर की धमक सुन लेते थे कठरी बाबाजी, और टोक देते थे, ‘‘तुम कौन हो जी ? कौन हो, कहाँ जाते हो, मुझे नहीं बता रहे हो ?’’ चोरों का शगुन बिगड़ जाता। चिढ़कर चोर कठरी बाबाजी की पिटाई कर देते, ‘‘टोककर शगुन खराब कर दिया। चोर हैं हम लोग, चोरी करने निकले थे। अब आज नहीं जाएँगे, शगुन बिगड़ गया। खबरदार जो कल फिर से टोका तो ?’’
मार खाते हुए कठरी बाबाजी खाली इतना ही करते, ‘‘आहि रे बा। बेकार में क्यों मार रहे हो ? मैंने तो केवल एक बात पूछी थी।’’

वही बात कठरी बाबाजी ने फिर दूसरी रात भी पूछ ली। दही भात खा, पान मुँह में दबा चोर उस दिन निश्चिंत होकर निकले थे पैर बजाते हुए। कठरी बाबाजी ने टोक दिया, ‘‘तुम लोग कौन हो जी ? कौन हो, कहाँ जाते हो, मुझे नहीं बता रहे हो ?’’ चोर जल गए। कठरी बाबाजी की जमकर मरम्मत कर दी। सिर फोड़ दिया। कठरी बाबाजी ने शोर नहीं मचाया। मार खाते हुए भी कहते रहे, ‘‘आहि रे बा ! बेकार में क्यों मार रहे हो ? मैंने तो केवल एक बात पूछी थी।’’
चोर हर रात मना करते और दूसरे दिन कठरी बाबाजी फिर टोक देते। चोरों ने रास्ता बदल लिया, तो उस रास्ते पर भी कठरी बाबाजी धूनी रमाए, मुस्तैद, तुम कौन हो भई ? कौन हो, कहाँ जाते हो, मुझे नहीं बता रहे हो ?’’ जिधर भी, जिस भी रास्ते से जाते, कठरी बाबाजी पीछे से अवश्य टोक देते।

उकताकर चोर उस दिन शगुन-वगुन की बात भूल गए। कठरी बाबाजी को साथ ले लिया, चलो आज अपनी आँखों से देख लो कि हम लोग कौन हैं और कहाँ जाते हैं। तुझे तो मारना भी बेकार है। अपने ही हाथों में चोट लगती है। तुम काठ हो-काठ। लहूलुहान हो जाते हो, मगर एक बूँद आँसू नहीं आता है आँख में।’’
कठरी बाबाजी चोरों के साथ चलते हुए बोले, ‘‘मेरी आँखों में आँसू क्यों रहेगा भाई ? कोई खराब काम किया है मैंने ? केवल एक बात पूछी थी और उसी के लिए मार दिया। खुद ही पछताओगे।’’
सचमुच, पछताए थे चोर।

एक अमीर के घर में सेंध मारी-बहुत बड़ी सेंध। बहुत-सी मिट्टी जमा हो गई। घर में घुसने में झंझट थी। एक चोर बोला, कोई कठरी। बाबाजी बैठा क्यों है ? कैसा भुसुंड है।’’
कठरी बाबाजी आँगन के पास गए और जोर से आवाज लगाई, ‘‘घरवैया हैं क्या ? घरवैया हैं क्या, सात चोर खड़े हैं, सेंध काटी हुई है सो मिट्टी फेंकने के लिए टोकरा माँग रहे हैं।’
लोग जाग गए। घरवाले दरवाजे खोल-खोलकर दौड़े। चोर सब जान लेकर भागे। पकड़े गए कठरी बाबाजी। कभी उसे लात-जूतों से मारने लगे। कठरी बाबाजी केवल इतना ही बोले, ‘‘आहि रे बा ! मैंने ही तो आवाज लगाकार जगाया और मुझे ही मार रहे हो ?’’

छोकरे कठरी बाबाजी को थाने ले जा रहे थे, मगर समझदारों ने कठरी बाबाजी को छुड़ा दिया। पूरी देह फूटी हुई, लहूलुहान। कठरी बाबाजी वहाँ से पैर घसीटते विदा हुए।
दूसरे दिन अँधेरे में सातों चोर निश्चिंत होकर विदा हुए कि लोगों ने कठरी बाबाजी को अवश्य ही मार दिया होगा या अधमरा करके जेल भेज दिया होगा। वह आज शगुन नहीं बिगाड़ेगा। मगर कठरी बाबाजी उसी बाट पर धूनी रमाए, मौजूद थे, ‘तुम कौन हो भाई ? कौन हो, कहाँ जा रहे हो, मुझे नहीं बता रहे हो ?’’
जले-भुने चोरों ने मारते-मारते हालत खराब कर दी, ‘‘तुम कल जिंदा बच गए, मगर आज हम लोग तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।’’

कठरी बाबाजी मार खाते रहे। एक बार भी शोर नहीं मचाया। केवल इतना ही कहा, ‘‘आहि रे बा ! मुझे ऐसे क्यों मार रहे हो ? मैंने तो केवल एक बात पूछी थी।’’
मार-मारकर तंग आ चुके चोरों ने खुद ही उन्हें छोड़ दिया, ‘‘इसे मारना बेकार है। ले चलो आज फिर इसे, बस कोई काम मत सौंपना आज।’’
अपना झोला-झंडा सँभालते कठरी बाबाजी चोरों के साथ विदा हुए। चोर उस दिन एक दूसरे गाँव में गए। एक बनिए की दुकान का ताला तोड़कर उसमें घुसे। शुरू में ही चीनी की बोरियाँ रखी हुई थीं। बोरे फाड़-फाड़कर चोर चीनी फाँकने लगे। एक का ध्यान कठरी बाबाजी की तरफ गया। थोड़ी-सी चीनी उन्हें भी देते हुए कहा, ‘‘लो, तुम भी खाओ।’’
अँधेरे में ही कठरी बाबाजी ने झोले में से भगवान को निकालकर उन्हें भोग लगाया। फिर लगे शंख बजाने। चोर सब जान लेकर भागे। बनिए के घरवाले लाठी डंडा लिए दौड़े। कठरी बाबाजी को मारते-मारते अधमरा कर दिया। कठरी बाबाजी केवल इतना ही कहते रहे, आहि रे बा ! मुझे क्यों मार रहे हैं ?’’

बनिए के घरवाले कठरी बाबाजी को वैसे ही मारते रहे। फिर खुद ही थककर छोड़ दिया। कुछ समझदार लोगों ने उन्हें छुड़ा दिया। थोड़ी देर बाद कठरी बाबाजी उठे और पैर घसीटते हुए विदा हो लिए।
चोर उस नगर को छोड़कर भाग गए किसी दूसरे नगर की ओर।
दादी की रजाई के नीचे दुबके किस्सा सुनते भास्कर ने पूछा, ‘‘यह कठरी बाबाजी कौन था दादी ?’’
‘‘बाबाजी थे-साधु महात्मा’’, दादी का सहज उत्तर था।
‘‘साधु महात्मा किसे कहते हैं दादी ?’’
‘‘महात्मा माने महात्मा ! माने जो घर संसार त्याग देते हैं, जिन्हें किसी वस्तु का लोभ नहीं रह जाता है।’’ दादी ने समझाने की चेष्टा की।

‘‘उन्हें चोट क्यों नहीं लगती थी दादी ?’’ भास्कर ने फिर प्रश्न किया।
‘‘चोट कैसे लगती ! उनकी देह तो काठ की थी-इसी से नाम था कठरी बाबाजी।’’
दादी ने सहजता से उत्तर दिया। भास्कर की जिज्ञासा मगर शांत नहीं हुई। पूछा, ‘‘काठ के थे तो खून कैसे बहा, कपाल कैसे फूटा ?’’
दादी गड़बड़ाने लगी। इस प्रश्न का उत्तर तत्काल नहीं दिया। भास्कर की जिज्ञासाओं का अंत नहीं हुआ था, ‘‘मनुष्य की देह काठ की कैसे हो गई दादी ? साधु महात्मा क्या मनुष्य नहीं होते ?’’
इस प्रश्न पर दादी बहुत गंभीर हो गईं। पोते को रजाई के नीचे अपनी जर्जर काया से और अच्छी तरह से सटाकर कहा, ‘‘मनुष्य ही था बेटा, मगर जो मनुष्य अन्याय अनीति पर बोलता है, उसे ऐसे ही सबके लात-जूते खाने पड़ते हैं। अपनी देह को काठ बनाना पड़ता है और आत्मा को अजेय।

इतना कहकर दादी चुप हो गईं। डर लगा कि कहीं भास्कर फिर से प्रश्न न कर बैठे आत्मा क्या होती है ? अजेय माने क्या ?
भास्कर सो गया था। अपने प्रश्न का उत्तर सुनते-सुनते उसकी आँखें लग गई थीं। आत्मा और अजेय शब्द उसने नहीं सुने। सुनता तो घंटों दादी से सवाल पूछ पूछकर उन्हें उकता देता।
वैसे दादी उसके प्रश्नों से कभी नहीं उकताती थी। सोए हुए भास्कर के माथे के झबरेदार केशों को सुलझाती दादी की अपनी आँखें भी झपक गईं।
कोठरी में अँधेरा फैला हुआ है। डिबिया न जाने कब बुझ गई थी। कोठरी के कोने की बोरसी की आग भी खतम हो गई थी। केवल राख के नीचे आग रह गई थी, सुबह में बोरसी फिर से सुलगाने के लिए।

शाम से ही आज घर में बड़ी भीड़ थी। पहले बोरसी ओसारे पर होती थी। जाड़ा बढ़ा तो घर में रखी जाने लगी। दादी की बोरसी के पास, और बिना बोरसी के भी, दादी की बैठकी में बारहों माह चौसासे आँगन के सारे बाल-बच्चे शाम से ही जमा होने लगते थे। आँगन का नाम की अब ‘चौसासा’ भर रह गया था। वह था अब महेंद्रनाथ चौधरी का, यानी भास्कर के पिता का। कभी भास्कर के दादा अपने चारों भाइयों के साथ इसी आँगन में रहते थे। चौसासे आँगन के चारों ओर चार कोठे थे-एक-एक सभी भाई का। कभी भास्कर के दादा अपने चारों भाइयों के साथ इसी आँगन में रहते थे। चौसासे आँगन के चारों ओर चार कोठे थे एक-एक सभी भाई का। फिर बाँट बखरा हुआ, तीन हिस्सेदार इस आँगन से बाहर चले गए। बदले में जमीन और रुपये मिल गए। आँगन में रह गए महेंन्द्रनाथ चौधरी के पिता।

 उनके हिस्से में पिछवाड़े वाला कोठा आया था, जिसमें अब महेंद्रनाथ चौधरी की माँ रहती थी। एक किनारे पूजाघर था और दूसरी कोठरी में सामान रखे हुए थे। पुराने-धुराने संदूक और आलमारी में ठुँसी अड़जाल-खड़जाल। चोरबा-नुक्की खेलते समय बच्चों को बड़ी-बड़ी अलमारियों, संदूकों के पीछे छिपने में बड़ी सुविधा होती। ताला भी नहीं लगता था उस घर में अब। दक्षिण दिशा वाले कोठे में महेंद्रनाथ चौधरी स्वयं रहते थे। उत्तर वाले में उनका बड़ा बेटा शचींद्रनाथ चौधरी रहता था। जिसे सभी सचिन बाबू कहते थे। भास्कर से बीस, वर्ष बड़ा। पूरब वाले कोठे के हिस्सेदार ने बदलने नहीं माना। जमीन तो दे दी, मगर अपनी सारी ईंटें, उखाड़, उससे ठीक सटाकर अपना आँगन बना लिया। महेंद्रनाथ चौधरी के पिता के पूरबवाले घर के प्लॉट से सटा उनका पश्चिम वाला बन गया और आँगन का मुँह और आगे बढ़ाकर वे उसी जगह बस गए। महेंद्रनाथ चौधरी के पिता को असुविधा हुई। उस पूरबवाले प्लॉट पर उन्होंने एक विशाल रसोईघर बनवा लिया।

 खूब बड़ी-बड़ी तीन कोठरियाँ। खूब ऊँची कुर्सी और उस पर ईंट की दीवार। धरन-खंभे सब सखुआ के मगर ऊपर में खपरैल। सबसे दक्षिण वाली कोठरी में भंडार बना, उसी से सटा हुआ विधवाओं के लिए अलग रसोईघर, अरबा खानेवालियों के लिए। जब कभी विधवा ब्राह्मणी नहीं मिलती थी, स्वयं महेंद्रनाथ चौधरी की माँ रसोई बनाती थी। सधवाओं का छुआ नहीं खाती थी। और उसी से सटे कमरे में उसना का पटल था। उसमें भी एक ब्राह्मणी ही रसोई बनाती थी-मगर उसमें सधवाएँ भी खाना बना सकती थीं। दालान की दिक्कत रह गई। साझे के बँगले में अपना हिस्सा छोड़ दिया था। मेहमानों अतिथियों को सीधा आँगन में तो लाया नहीं जा सकता था। दालान बनाना ही पड़ा। थोड़ा हटकर आँगन के मुहाने से उत्तर की ओर दो-तीन सौ कदम के बाद खूब जमीन थी। वहीं अपना दालान बनवाया। बाड़ी फुलवाड़ी लगवाई। उसमें भी दो कोठरियाँ बनवाईं-दोनों किनारे, खूब ऊँची चार-चिकने खढ़ से छवाई हुई। दोनों कोठरी और बीच का बरामदा सीमेंट किया हुआ। उस बरामदे में पाँच सौ आदमी भी एक साथ बैठ सकते थे। नाच के समय पूरे गाँव के लोग वहीं जुटते थे। स्त्रियों के लिए शामियाना लगा। उसे तीन तरफ से कनात से घेरकर सामने की तरफ सड़की लगाई जाती थी। महेंद्रनाथ चौधरी के पिता महारुद्र चौधरी बड़े इकबाली और रसिक थे। उन्हीं के इकबाल से सब कुछ होता था। नाच-गान... शोभा-सुंदरता।

सुंदर-सुंदर चार कुलीन कन्याओं से विवाह भी किया था-सभी क्षत्रियों की बेटियाँ। महारुद्र चौधरी के परदादा को जब जमींदारी मिली थी, मैथिल समाज में तब उनका महत्त्व नहीं था। सभी उन्हें हीन समझते थे। कुलीन मैथिल ब्राह्मण की बेटी को बहू बनाकर लाने की जिद ठान ली। रसिक के साथ-साथ महारुद्र चौधरी असली रुद्र के अवतार भी थे। पूरा इलाका उनसे थर-थर काँपता था। जिसकी बहू-बेटी पर नजर गाड़ी, उसे उठवा, हवेली में मँगवा लेने में जरा भी देरी नहीं होती थी।

कुलीन ब्राह्मण को उठा लाने में मगर बड़ा कष्ट हुआ महारुद्र चौधरी को। उनके पिता ने अपनी सभी बेटियों को दरिद्र, वृद्ध, पागल, विक्षिप्त जैसा मिला वैसे ही कुलीन ब्राह्मणों को ब्याह दिया। उनकी भी चार शादियाँ थीं। चारों विवाहों से सत्रह बेटियाँ थीं। सबको अपने गाँव में बसाया। घर जमीन दिया। बिक्री में पूरा मूल्य लेने के सिद्धांती भलेमानुसगण अपना मूल्य पाकर संतति को इसी गाँव में छोड़, विदा हो लिए। सत्रह बहनों के बीच चार भाई थे महारुद्र चौधरी। उन्हें भी अपनी बेटी देने में भलेमानुस वर्ग ने बड़ा मोल-तोल किया। भलेमानुसों की बेटियों का मूल्य उस समय अधिक था। राजाओं जमींदारों के घर में बेटी देने पर खूब मूल्य मिलता था।

 महारुद्र चौधरी के परदादा मूल्य देने के लिए तैयार मगर महारुद्र चौधरी जिद्दी, तिकड़मी और क्रूर थे। अपने बड़प्पन को किसी भी दिशा से कम नहीं देखना चाहते थे। जाति गर्वयुक्त समाज की चार कुलीन कन्याओं को अपनी स्त्री बना लाए। पहला विवाह बाप छोटे ब्राह्मण की बेटी से ही करा गए थे। मगर वह नहीं रही। थोड़े ही दिनों बाद मर गई। महारुद्र चौधरी ने उसके बाद चार विवाह किए-चारों श्रोत्रिय बेटी। सबसे छोटी थी महेंद्रनाथ की माँ भास्कर की दादी। चारों स्त्रियों से एक-एक बेटा और तीन-तीन बेटियाँ थीं। सभी बेटियों की शादी कर ससुराल भेज दी। गाँव में बसाने योग्य अब जमीन नहीं थी। हवेली से सबको मदद मिल जाती थी। होशमंद होने तक चारों भाई एक ही आँगन में रहे। उसके बाद बँटवारा हुआ और साझे आँगन में रह गए अकेले महेंद्रनाथ चौधरी।


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